जब भी हम महाभारत पढ़ते हे तो कर्ण और एकलव्य के बारे में पढ़कर हम जरुर ही व्यथित होते हे, कर्ण और एकलव्य दोनों ही शायद द्वापरयुगीन भारतीय वर्णव्यवस्था के शिकार थे..? या अधर्म की छोर से लडे गुमराह धर्मयोद्धा थे. जैसे की इतिहास में होता आ रहा हे, विजेताओ की तुलना में परभुतो को कम ही न्याय मिलता हे.
आप सभी को एकलव्य की गुरुदाक्षिना वाली कथा तो पता ही होगी, पर आज के एपिसोड में हम आपको एकलव्य की एक ऐसी कहानी बतायेंगे जिसे आपको शायद हि किसीने बताई होगा.

महाभारत काल मेँ प्रयाग के तटवर्ती प्रदेश मेँ दूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य एकलव्य के पिता निषादराज हिरण्यधनु का था।  निषाद राजा हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी।
निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के राज्यकारभार से जनता सुख व सम्पन्नता से जि रही थी। राजा राज्य का संचलन आमात्य
(मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। जैसा की हम जानते हे प्रजातंत्र सबसे पहले भारत में ही बना था. और उदाहरन के तौर पर आज के england का प्रजातंत्र ठीक उसी तरह काम करता हे, जैसा की प्राचीन भारतीय गणराज्यो का करता हे. जहा राजा एक विशिष्ट परिवार का होता था और मंत्रीपरिषद प्रजा से चुनी जाती थी.

       निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम
अभिद्युम्नरखा गया। प्राय: लोग उसे अभयनाम से बुलाते थे। पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई वही उसे एक और नाम एकलव्य मिला।
      यहाँ हम आपको ये बतादे की भीष्म पितामह की सौतेली माता सरस्वती एक निषादकन्या थी, और यांनी कौरव और पांड्वो की दादी एकलव्य की जाती से ही थी
एकलव्य की महान गुरुदाक्षिना की कहानी हम आपको कभी और सुनायेंगे, अगर आप चाहते हो की हम एकलव्य की गुरुदाक्षिना की कहानी पर एक एपिसोड बनाये तो हमें कमेन्ट कर बताये.
कुमार एकलव्य अंगूठे की गुरुदाक्षिना के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला आता है। फिरसे एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से अंगूठे के बिना धनुर्विद्या मेँ फिरसे प्रविन्य प्राप्त कर लेता है।
     


पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैl अमात्य परिषद की सहायता से वो न 
केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करता है।
विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण  के अनुसार जब भगवान कृष्ण अपने मामा कंस का वध करते हे तो कंस का ससुर जरासंध यादवो के खिलाफ युद्ध शुरू कर देता हे. निषाद वंश और मगध साम्राज्य के पूर्वापार घनिष्ट संबंधो के चलते एकलव्य भी जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर देता हे. वो १७ बार मथुरा पर आक्रमण कर वो यादव सेना को लगभग ध्वस्त कर देता हे. यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब भगवान कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ था।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों  शुर यादव वंशी योद्धाओं को हराने में सक्षम था। पर आखरी युद्ध में भगवन कृष्ण ने छल या अपनी कूटनीति से एकलव्य का वध किया था । एकलव्य ने यादव सेना और मथुरा का इतना विनाश किया था की यादवो को मथुरा छोड़ हजारो मिल दूर द्वारका शहर बसना पड़ा था. बादमे एकलव्य का पुत्र केतुमान भी महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।
महाभारत के युद्ध के बाद जब सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब भगवान कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।
कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए

इतिहास ने एकलव्य को अनदेखा कर शायद उसके साथ अन्याय किया था.
पर वर्तमान ने जानते- नजानते हुए एकलव्य का सम्मान किया हे,
आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है
, अत: अर्जुन की अंगूठे के उपयोग करनेवाली धनुर्विद्या काफी कम लोग जानते हे, पर एकलव्य की धनुर्विद्या आज भारत से दूर सातो समुद्रोपार भी विख्यात हे

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